दीप गीत

- ऋषि श्रंगारी


              1


द्वार पर दोनों जा बेठ, तन मन सकचाए।


मौसम अदल बदल कर आये, मीत नहीं आये।।


भोर अटा प बोल गया वो। सधियों के पट खोल गया वो।।


तन का चंदन महका - महका। गंध पवन में घोल गया वो।।


झक-झक राह बहारे नयना, प्यास मदराय।।


दिन बीता तो शाम ढल गयी। विरहा के घर रेन खल गयी।।


अधमंद पलकों में निंदिया, सपनों का संसार छल गयी।।


विसर छंद-छंद गीतों से, रहते अकलाये।।


आँगन की तलसी मरझाई।


समझ गयी वो पीर पराई।


घर बाहर सब सना-सना, ताने मार रही परवाई।


                   2


दीप! तम जलना मगर कछ काम करना!


हो सके तो विश्व का अंधियार हरना!


में! तम्हारे साथ जसे मीत कोई! क्रोंच वध की परिणिति में गीत कोई!!


नेह की गंगा उतरना, चहं दिशा उजियार भरना!!


दीप! तम जलना मगर कछ काम करना!


हो सक तो जिन्दगी की बात करना!


में! तम्हारे कर्म में शामिल नहीं हैं!


कल जहाँ था आज भी बैठा वहीं हूँ!!


मेरी राहों से गजरना, एक पल दो पल ठहरना!!


दीप! तम जलना मगर कछ काम करना!


हो सके तो तम समय की धार बनना!!


में! किनारे पर खडा विश्वास लेकर!


अर्चना की आंजरी में प्यास लेकर!!


तमस का पतिकार करना,


ओस कण अधरों पधरना!!


दीप! तम जलना मगर कछ काम करना!
हो सके तो पाण पिय सा रूप धरना!!